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जीवन कथाएँ >> लखिमा की आँखें

लखिमा की आँखें

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1469
आईएसबीएन :9788170287544

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कवि विद्यापति के जीवन पर आधारित रोचक मौलिक उपन्यास....

lakhima ki Aankhen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट कवियों, कलाकारों और चिंतकों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक श्रृंखला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूरा किया है। प्रस्तुत उपन्यास महाकवि विद्यापति के जीवन पर आधारित अत्यंत रोचक मौलिक रचना है।

विद्यापति का काव्य अपनी मधुरता, लालित्य तथा गेयता के कारण पूर्णोत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हुआ और आज भी लोकप्रिय है। लेखक ने स्वयं मिथिला जाकर कवि के गांव की यात्रा करके गहरे शोध के बाद यह उपन्यास लिखा है। मिथिला के राजकवि, विद्यापति ठाकुर कुछ समय मुसलमानों के बन्दी भी रहे। उन्होंने संस्कृत में भी बहुत कुछ लिखा परंतु अपनी मैथिल भाषा में जो लिखा वह अमर हो गया।

आदि से अंत तक अत्यंत रोचक यह उपन्यास उस युग के समाज, राजनीति और धार्मिक जीवन का भी सजीव चित्रण करता है।

भूमिका


‘मैथिल कोकिल’ नाम से विख्यात पूर्वी भारत के कवि विद्यापति ठाकुर सम्भवतः भारत के अकेले कवि हैं जिनकी ठेठ देसी भाषा मैथिली में लिखी कविता अपने लालित्य माधुर्य और गेयता के कारण उनकी अपनी भाषा के अतिरिक्त बंगला और हिन्दी में भी अपार लोकप्रिय रही है। वे संस्कृत के विद्वान थे और इस भाषा में भी उन्होंने अनेक रचनाएं कीं, परंतु लोकप्रियता उन्हें तभी प्राप्त हुई जब उन्होंने मैथिली में रचना आरंभ की। उनके गीत कृष्ण की भक्ति में लिखे गये और इन गीतों का अकेला संकलन ‘पदावली’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस कारण उन्हें ‘अभिनव जयदेव’ के नाम से भी जाना गया-जो विद्यापति से तीन सौ वर्ष पूर्व बंगाल में हुए थे और लालित्यपूर्ण गीतों की परम्परा का जिन्होंने ‘गीत गोविन्द’ के माध्यम से श्रीगणेश किया।
महाकवि जयदेव ने गाया था-


ललित लवंग लता परिशीलन
कोमल मलय समीरे
और विद्यापति ने इसी परम्परा में कहा-
सरस वसंत समय मल पाओल
दखिन पवन बह धीरे


महाकवि विद्यापति पंद्रहवीं शताब्दी में मिथिला के ग्राम बिसिपी में हुए थे। इनके संबंध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु माना जाता है ये महापंडित और मिथिला नरेश के राजकवि थे। उनकी रानी लखिमा भी कवि की बहुत प्रशंसक थीं। अनुमान है कि विद्यापति ने लम्बी आयु पाई थी और उन्हें कई राजाओं का संरक्षण प्राप्त हुआ। राजा नरसिंह देव की आज्ञा से उन्होंने संस्कृत में ‘विभागसार’ ग्रंथ लिखा जिसमें संपत्ति के विभागों और अधिकारों का वर्णन है। ‘दान वाक्यवली’ में दान की महिमा तथा विधि पर प्रकाश डाला गया है। ‘गया पत्तलक’ में गया में किये जाने वाले श्राद्ध की महत्ता तथा विधि बतलाई गई है। ‘दुर्गाभक्तिरंगिणी’ और ‘शैव सर्वस्वसार’ में इन देवों की महत्ता तथा उपासना पद्धति बताई गई है। ‘वर्ष कृत्य’ में वर्ष में मनाये जाने वाले पर्वों की कथाएं तथा विधियाँ दी गई हैं। ‘पुराण संग्रह’ में प्रमुख पुराणों का सार समेटा गया है। इसी प्रकार अवहट्ट भाषा में महाराज कीर्ति सिंह के युद्ध और विजयों, राज्याभिषेक आदि घटनाओं का वर्णन ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ पुस्तकों में किया गया है।

विद्यापति का युग भारत में हिन्दू समाज के लिए कठिन परीक्षा का समय था। तुर्क और मुगल सेनाएं हिन्दू धर्म तथा मंदिरों का नाश कर रही थीं। और आम जनता को जबरदस्ती मुसलमान बना रही थीं। ऐसी स्थिति में तीव्र भक्तिपरक नृत्य-गायन से पूर्ण ईश्वर की उपासना ही उन्हें अपने धर्म से जुडे रहने की शक्ति देती थी। यवनों से लड़ना आम जनता के लिए संभव नहीं था इसलिए वे आक्रमणों के समय गाते-बजाते रहते थे, और उनकी तलवारों से कट कर गिरते भी चले जाते थे। इस कारण ईरान तथा मध्य एशिया के अनेक देशों के समान भारत पूरी तरह मुसलमान कभी नहीं बना, यह इतिहास का महत्त्वपूर्ण तथ्य है। समय आने पर वह फिर अपने पैरों पर धीरे-धीरे उठकर खड़ा हो गया।
ऐतिहासिक तथ्य यह भी बताया जाता है कि कविवर विद्यापति स्वयं भी मुगल सेना के बन्दी बनकर दिल्ली में रहे थे। रांगेय राघव ने बड़ी कुशलता से तत्कालीन राजनीति और समाज में विद्यापति को स्थापित किया है जो रोमांचक होने के साथ बोधक भी है।
महाकवि विद्यापति पर बहुत कम लिखा गया है। ऐसी स्थिति में यह उपन्यास एक महत्त्वपूर्ण योगदान कहा जायेगा।

लखिमा की आँखें

गीत का चुम्बक


मैं कब से कहना चाह रहा हूँ किन्तु कह नहीं पाया, न जाने क्यों ऐसा लगता है कि जो कुछ मैं अपने शब्दों में बाँध देना चाहता हूँ, वह वास्तव में भावनाओं की बात है। हो सकता है कुछ लोग यही अनुभव करें कि मनुष्य को जीवन में कुछ न कुछ सहारा अवश्य चाहिए और उसी की खोज में मैंने अपने लिए एक बहाना बना लिया है, क्योंकि वैसे देखा जाए तो दुनियादारी के शब्दों में मेरे कोई गिरस्ती नहीं है। यों ही मैं घूमता-फिरता हूँ। आप कहेंगे कि ऐसा क्यों है ? मैं वैसे जाति का ब्राह्मण हूँ। नवद्वीप में मैंने शिक्षा प्राप्त की और फिर वहाँ से मैं काशी गया जहाँ शालाओं में लड़के संस्कृत रटा करते हैं और वहाँ के तोते भी उनकी बोली सीख जाते हैं। काशी के पथों पर मैंने न जाने कितनी बार महात्माओं के दर्शन किए, परन्तु वहाँ कुछ भी नहीं हुआ। हुआ भी तो लौटती बार जब एक बौद्ध परिवार से मुलाकात हुई। वह परिवार उत्कलवासी था और घर लौट रहा था। हम सब साथ ही चले। उस परिवार के लोग सहजयानी थे, किन्तु मुसलमानों के आतंक के कारण बौद्ध सदा ही अपने को छिपाते हैं। मुसलमान कहते हैं कि ब्राह्मण भी अच्छा, बुतपरस्त है तो क्या हुआ, कम से कम अल्लाह को तो मानता है, लेकिन यह बौद्ध तो कमबख्त ऐसे काफिर हैं कि खुदा को ही नहीं मानते।

यों ही हम लोगों ने थककर जंगल के किनारे पड़ाव डाला। मेरा उड़िया सहजयानी मित्र तो बैठ गया। वह एक मोटा आदमी था और अवहइ बोलना भी जानता था। वह बड़ा पढा-लिखा आदमी था। मैं उसके समीप ही लेट गया। थककर सो गया था। उसकी पत्नी और युवकी पुत्री ने भोजन का प्रबन्ध प्रारम्भ किया। गाड़ीवान अब बैलों को खोलने लगे। वे अपनी पछांही बोली बोलते हुए न जाने क्या कहते थे कि उनकी बोली मैं तो समझ लेता किन्तु उड़िया बन्धु नहीं समझ पाते थे। वैसे मैंने हिंगलाज1 से आने वाले नाथ जोगियों से सुन रखा था कि पश्चिम से पूर्व में कामरूप तक बोलियों में थोड़ा-थोड़ा ही अन्तर था।

साँझ अब गहरी होने लगी थी। किराए पर लाई गई ये गाड़ियाँ हाँकने वाले अब अपनी रोटी पकाने लग गए थे।
कैसा बियाबान जंगल था। अभी हम लोगों को बैठे देर नहीं हुई थी कि पूर्व की ओर कुछ कोलाहल सुनाई देने लगा। घने वृक्षों की छायाएँ अब उतरते अन्धकार में लुप्त हो गई थीं। ऐसा लगा था जैसे सारी हरीतिमा एक विशाल श्याम सघन छाया बनकर हवा पर सरसराती हुई हिल रही थी। गाड़ीवानों के पत्थरों के टुकड़ों को बीनकर बनाए चूल्हों में अग्नि की लपटें प्रदीप्तवर्ण-सी काँप रही थीं और उनके हल्के प्रकाश में उन काले और साँवले शरीर के सुद़ृढ़ गाड़ीवानों के चेहरों पर उभर आई आशंका दिखाई देने लगी थी।
उड़िया यात्री ने अपने भारी स्वर में धीमा बनाने की चेष्टा की, जिससे वह स्वर भर्रा-सा गया। उसने कहा, "उधर यह शोर हो रहा है न ?"

मैंने कुछ नहीं कहा।
यात्री ने अपनी पत्नी की ओर देखा जो अब सहमी हुई सी निकट आ गई थी। उसके पीछे ही उसकी युवती पुत्री थी, जिसके मुख पर आतंक सा छा गया था। वह निस्तब्ध थी। सामने की जलती आग उसके चेहरे पर अपनी झाँई मार रही थी और मैंने देखा कि उसके स्थिर और बुझे हुए चेहरे में भी जीवन की चिन्गियों की तरह उसकी दोनों आँखें अनागत से टक्कर लेने की स्पर्धा भरकर चमक रही थीं।
"न हो तो," मैंने फुसफुसाकर कहा, "कहीं अगर डाकू ही हों, तो मैं और आप सामान के साथ यहीं रह जाएँ और इन दोनों स्त्रियों को आप कुछ मूल्यवान वस्तुओं के साथ अपना एक नौकर करके जंगल के किसी भाग में चले जाने को कहें। डाकू निकल जाएँगे तब हम लोग इन्हें ढूँढ़ लेंगे और चल पड़ेंगे।"
उड़िया यात्री ने गम्भीरता से सुना। उसके कानों में हीरे थे और हाथों में सोने के कड़े।

उसकी स्त्री ने कहा, "नहीं," उसकी आवाज बहुत ही धीमी थी। उसने फुसफुसाते हुए कहा, "हम नहीं जाएँगी। साथ में रहकर ही मर जाना अच्छा होगा। मेरे पास कटार है। इसी से लड़की को मारकर मर जाऊँगी। जानते नहीं ?
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1. बलूचिस्तान के समीप
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ये गाड़ीवान डाकुओं से मिले होते हैं। इधर हम छिपने जाएँ तो जैसे इन गाड़ीवानों को पता भी नहीं चलेगा। ?"
"जो हो," यात्री ने उठकर अपनी तलवार उठाकर कहा, "देखा जाएगा।"
उसे उठता देखकर गाड़ीवानों का बूढ़ा सरदार पास आ गया और उसने कहा, "स्वामी डाकू आए लगते हैं।"  
‘‘पर डाकू वहाँ क्यों शोर करते हैं ?" यात्री ने पूछा।
‘‘इसीलिए कि वहाँ कोई यात्री दीखते हैं।’’
इस समय कोलाहल कुछ कम हो गया था।

मैं विचित्र विचारों में खो गया।
क्या सचमुच आज ही जीवन का अन्त हो जाएगा ?

मैं सुदूर बंगवासी। मैंने वेदों का 12 वर्ष अध्ययन किया, कौन नहीं जानता कि मैं कितना बड़ा पण्डित हूँ। आज यात्रा की सहायता प्राप्त करते हुए अचानक इस सहजयानी से आ मिला हूँ। वैसे यह सहजयानी अब हैं ही कहाँ ? थोड़े-बहुत उड़ीसा में ही होंगे। बाकी हमारे बंग में तो अब बाउल ही बाउल दिखाई देते हैं। वयोवृद्ध कमलेश्वर कहता था कि जब वह बालक था तब तुर्कों बौद्धों और सहजयानियों का घोर वध किया था। तुर्कों ने जब इनके विहारों में अपार सम्पत्ति देखी थी। तब भी भरकर लूटा था। उस समय तक ब्राह्मण विद्वेषी बौद्धों ने तुर्कों और मुसलमानों को निमन्त्रण दे देकर बंग में बुलाया था, किन्तु बाद में जब उल्टी मार लगी तो सब भूल गए। अधिकांश तो धड़ाधड़ मुसलमान ही बन गए। अनीश्वरवादी इन मुण्डियों को म्लेच्छ होने में ही क्या विलंब हुआ।



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